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शिशु वाटिका

शिशु वाटिका (पूर्व प्राथमिक शिक्षा)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार पूर्व प्राथमिक शिक्षा को अब औपचारिक शिक्षा माना गया है । उसके लिये अबतक कोई पाठ्यक्रम नाहीं था । किंतु अब आयु 3 से 5 तक संपूर्ण शिक्षा खेल, सद्गुणों की कथाएं, देशभक्ति गीत, इन्द्रिय विकास, भाषा कौशल एवं विविध अनुभव से होगी । केवल आयु 5 से 6 के लिये कृतिपुस्तिका रहनेवाली है । आचार्यों के लिए मार्गदर्शिका रहेगी। इस आयु के लिये शिक्षा मातृभाषा में हो ऐसा आग्रह है । कहीं भी लेखन क्रिया नाहीं है । संपूर्ण शिक्षा अनौपचारिक पद्धति से होगी । शिशु के शिक्षा का आधार पंचकोश विकास एवं व्यष्टि से परमेष्टि विकास मना गया है । विद्या भारतीने इसी प्रकार की शिक्षा प्रणाली विकसित की है ।

प्राचीन काल से भारत में शिशु शिक्षा परिवार में ही होती रही है । परिवार व्यवस्था सांस्कृतिक दृष्टि से सशक्त थी । बालक परिवार के स्नेहपूर्ण वातावरण में रहकर योग्य संस्कार ग्रहण करता था । माता ही प्रथम गुरु होती थी । वर्तमान काल में विद्यालय की आवश्यकता निर्माण होने के कारण कुछ शिक्षा व्यवस्थएं निर्माण हुई । जैसे कि किंडरगार्डन, मॉण्टेस्सोरी एवं नर्सरी । ये व्यवस्थएं भारत के बाहर की है । इसीलिये भारतीय संस्कृति एवं स्वदेशी परिवेश के अनुरूप शिशु शिक्षा पद्धति “शिशु वाटिका” का विकास किया गया । शिशु के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक एवं अध्यात्मिक विकास की या पद्धति है । इस पद्धति में भी संपूर्ण शिक्षा खेल, सद्गुणों की कथाएं, देशभक्ति गीत, इन्द्रिय विकास, भाषा कौशल, विज्ञान अनुभव, रचनात्मक कार्य, मुक्त व्यवसाय, चित्रकला, हस्तकला, दैनंदिन जीवन व्यवहार एवं विविध अनुभव से होती रही है । बालक आनंददायी शिक्षा की अनुभूती लेते है । इस पद्धति में अभिभावक (माता- पिता) की शिक्षा की भी व्यवस्था है । “शिशु वाटिका” यह शिशु शिक्षा का संपूर्ण भारतीय स्वरूप है ।

शिशु वाटिका के प्रकार –

अ. नमूना रूप वाटिका

0 से 5 वर्ष की शिक्षा का पूर्ण भारतीय स्वरूप अर्थात गर्भाधान पूर्व से लेकर शिशु के 5 वर्ष की विकास प्रक्रिया । इस विकास प्रक्रिया को 5 विभागों में विभाजित किया गया है ।
1.नवदंपति शिक्षा – लक्ष्मी नारायण कोर्स
नवदंपति को श्रेष्ठ संतान प्राप्ति के लिए शास्रीय नीति नियमों की शिक्षा जैसे कि संतान प्राप्तिपूर्व शारीरिक मानसिक शुद्धिकरण, सतान प्राप्ति की ऋतु, समय, आहार -विहार, ब्रह्मचर्य, योगाभ्यास, संगीत साधना, दिनचर्या, स्वाध्याय, परिवेष, आभूषण, पारिवारिक वातावरण भावावरण, ईश्वर प्रणिधान आदि। पती पत्नि का एकात्म भाव ।

2. गर्भवती शिक्षा – जगधात्री कार्स – गर्भाधान से लेकर नव मास तक की गर्भवती की शिक्षा जैसे मासानुमास गर्भस्थ शिशु विकास प्रक्रिया । गर्भवती का आहार विहार, दिनचर्या, मासानुमास मंत्र, स्तोत्र एवं संगीत श्राव, योगाभ्यास, प्राणायाम, ध्यान, ईश्वर प्रणिधान । गर्भस्थ शिशु के साथ वार्तालाप, परिवार का भावावरण, अग्निहोत्र, प्रार्थना, पती पत्नी का एकात्म भाव ।

3. जन्म से 1 वर्ष के शिशुओ की मातओ की शिक्षा – क्षीरादावस्था -अर्थात केवल माता के दूध पर आधारित पूर्ण रूप से परावलंबी जैसे की नवजात शिशु का कुमारागार । शिशु के कपडे, खिलौने, बिछौना। नवजात शिशु का संगोपन । अर्थात दुग्धपान, स्पर्श, मालिश, शयन, लौरी, प्रभाती आदी। नवजात शिशु के रोग एवं उपचार।

4. 1 से 3 वर्ष के शिशुओ की मातओ की शिक्षा – क्षीरादान्नादावस्था – अर्थात मां का दूध और आहार, परावलंबन से स्वावलंबन की ओर । जैसे की शिशु के कपडे, खिलौने, खेल, गीत, कहानी, आदते। शिशु के रोग एवं उपचार। शिशु मनोविज्ञान की जानकारी। शिशु का आहार विहार । संस्कार सिंचन।

5. 3 से 5 वर्ष के शिशुओं की मातओ की शिक्षा – अन्नादावस्था – अर्थात मां का दूध और आहार । पूर्ण रूप से स्वावलंबी । जैसे की विविध क्रीयाकलापों के द्वारा शिशु की ज्ञानेन्द्रिया, कर्मेंद्रिया, मन एवं बुद्धी का समन्वय करके चित्त पर संस्कार करना। क्रीयाकलाप करने के लिये घर एवं शिशु वाटिका में व्यवस्था खाडी करना। शिशु का आहार विहार, कपडे, खिलौने, खेल,कहानी,गीत, लौरी। शिशु के रोग एवं उपचार । शिशु मनोविज्ञान अनुसार 0 से 5 वर्ष के शिशु का 3 प्रकार से विकास होता है। 1.अंतःप्रेरणा से, 2. अनुभव से, 3.अनुकरण से । अतः 0 से 5 वर्ष में शिशु विकास के लिये घर को केंद्र बनाकर माता पिता को ही पढने की आवश्यकता है। विद्यालय को गुरु के रूप में माता पिता को शिक्षा देने की आवश्यकता है न की शिशुओं को ।

ब. प्रभावी शिशु वाटिका

विद्या भारती के पाठ्यक्रम के अनुसार चलनेवाली 3 से 5 वर्ष की शिशु वाटिका प्रभावी शिशु वाटिका है। प्रभावी शिशु वाटिका में क्रिया आधारित, अनुभव आधारित, आनंद मूलक एवं संस्कारक्षम शिक्षा दी जाती है । शिशु वाटिका पाठ्यक्रम अर्थात

1. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव, 2. संस्कार एवं चरित्र निर्माण, 3. क्षमताओं का विकास । यह 3 आधारभूत बिन्दुओं को लेकर शिशु के समग्र विकास का स्वरूप बनाया है ।

इस स्वरूप को साकार करने के लिये कुछ आवश्यक बाते –

अ) 12 शैक्षिक व्यवस्थाएं –

1. क्रीडांगण, 2. प्राणी संग्रहालय, 3. तरणताल, 4. बागवानी, 5. घर, 6. कलाशाला, 7. कार्यशाला, 8. प्रदर्शनी, 9.वस्तू संग्रहालय, 10. विज्ञान प्रयोगशाला, 11. रंगमंच, 12. चित्र पुस्तकालय

ब) साधन सामग्री

क) कार्यक्रम

ड) विद्यारंभ संस्कार के बाद वाचनमाला प्रयोग

इ) शिशु नगरी,

फ) आचार्य एवं अभिभावक प्रशिक्षण

ग) घर ही विद्यालय जैसे विशेष प्रयोग

पाठ्यक्रम को लागू करने के लिए केवल शिशु शिक्षा का ही नहीं आचार्य एवं अभिभावक शिक्षा का विचार भी किया गया है। इसमे 50% शिशु शिक्षा, 25% आचार्य शिक्षा और 25 % अभिभावक एवं समाज प्रबोधन समाविष्ठ है । कोई भी मूलगामी भारतीय विचार को समाज में प्रस्थापित करने के लिये इतना करना ही पडेगा ।

क. प्रयत्नशील शिशु वाटिका

जिस शिशु वाटिका में लेखन, पठन, परीक्षा, परिणाम, स्पर्धा, tution, गृह कार्य आदी प्राथमिक जैसी औपचारिक शिक्षा दी जाती है वह प्रयत्नशील शिशु वाटिका है ।

विद्या भारती अखिल भारतीय शिशु वाटिका परिषद अधिकाधिक नमुना रूप शिशु वाटिका के प्रशिक्षण पर ध्यान केंद्रित करेगी। इसके बाद प्रभावी शिशु वाटिका के प्रशिक्षण पर ध्यान देगी । और कम से काम समय प्रयत्नशील शिशु वाटिका के प्रशिक्षण को देगी।